"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से ! मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे ...

"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से ! मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे; हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है। " स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा- "ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं; तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो, किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं "हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा, जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर, अर्थ जिसका अब न कोई याद है "आ गये हम पार, तुम उस पार हो; यह पराजय या कि जय किसकी हुई ? व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का अब विजय-उपहार भोगो चैन से हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में, औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा एक रव मन का कि व्यापक शून्य का

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