एनएल चर्चा 70: मीडिया की आज़ादी और लोकसभा चुनाव के नतीजे

इस हफ़्ते की चर्चा विशेष थी. बीते गुरुवार लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे आये और अकेले बीजेपी ने देश में 303 सीटें हासिल कर लीं. वहीं कांग्रेस केवल 52 सीट ही जीत सकी. इस बार की चर्चा के केंद्र में मीडिया की आज़ादी की ज़रूरत और लोकसभा चुनाव के नतीजे रहे.चर्चा में इस बार शामिल हुए वरिष्ठ पत्रकार व लेखक उर्मिलेश उर्मिल, लेखक-साहित्यकार अनिल यादव. साथ में न्यूज़लॉन्ड्री के स्तंभकार आनंद वर्धन ने भी शिरकत की. चर्चा का संचालन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.अतुल ने बातचीत की शुरुआत करते हुए सवाल उठाया कि मीडिया और पत्रकारों के ऊपर दवाब कई तरह के दबाव डाले जाते हैं. विज्ञापन वाले मॉडल में सरकारों तथा कॉर्पोरेट के ऊपर निर्भरता आ जाती है. इससे बचने के लिए सब्सक्रिप्शन का मॉडल, जिसका उपयोग न्यूज़लॉन्ड्री भी करता है, कितना बड़ा विकल्प है? इसके अलावा क्या कोई और भी विकल्प हैं, जिससे इन तमाम दबावों से बचा जा सके?जवाब में उर्मिलेशजी ने कहा- "देखिये, ये काफ़ी जटिल प्रश्न है कि भारत मे आज़ाद मीडिया के लिए क्या रेवेन्यू मॉडल हो, उसका तंत्र किस तरह खड़ा किया जाये. इस समय देश में जिस तरह के जर्नलिस्ट हैं, बेहतर जर्नलिज़्म की चाह रखने वाले लोग इस मसले पर बहस करते रहते हैं. लेकिन जो सबसे बुनियादी बात मुझे लगती है, वह यह है कि हम आज़ाद मीडिया तो तभी बना सकते हैं. जब देश में जनतंत्र भी मज़बूत हो. मीडिया की जनतांत्रिकता, मीडिया की स्वतंत्रता, लोकतंत्र के बगैर मुश्किल है. आप देखिये, दुनिया के 180 मुल्कों का एक इंडेक्स जारी होता है. उस इंडेक्स को आप उठा कर देखिये, हर साल का आप पायेंगे कि जो सबसे ऊपर के 10 देश हैं, वो यूरोप के वो देश हैं जिन्हें पूंजीवादी जनतंत्र कहा जाता था. इन देशों में अमेरिका काफ़ी नीचे आता है. लेकिन जो तथाकथित समाजवादी जनतंत्र है, वहां की मीडिया के हालत आप देख लीजिये. आप वेनज़ुएला और रूस का हाल देख लीजिये, जो समाजवादी देश रहे हैं."इसी कड़ी में अतुल ने कहा कि "यह ठीक बात है कि अगर डेमोक्रेसी मज़बूत होगी, तो डेमोक्रेटिक मॉडल में कुछ ऐसी चीज़े लायी जायें जिससे मीडिया मज़बूत हो. ये तो एक पक्ष है. लेकिन रेवेन्यू के लिए कॉरपोरेट और सरकारी विज्ञापन के ऊपर जो निर्भरता है, क्या उसका कोई विकल्प है, क्योंकि वैसे तो पाठक के लिए न्यूज़ भी एक प्रोडक्ट है, जिसका वो कोई भुगतान नहीं कर रहा है. वह कैसे पता लगाये कि न्यूज़ कितनी सही होगी और कितने साफ़ तरीके से आ रही है. इस बात को मैं समझना चाह रहा हूं कि सब्सक्रिप्शन के अलावा और कोई मॉडल क्यों नहीं है रेवेन्यू के लिए?”जवाब में अनिल यादव ने कहा, “हम लोग थोड़ा जटिल दौर में आ गये हैं. रेवेन्यू जिन स्रोतों से आता है, उनका दबाव मीडिया के ऊपर होगा और जो खबरें आप दिखायेंगे वो प्रभावित होंगी. बात अब आगे बढ़ गयी है. आजकल मीडिया हॉउस सत्ता के साथ या जनविरोधी ताकतों के साथ मिल गया है. साथ होने के कारण वो पॉवरप्लेयर की भूमिका में आ गया है. तो दोनों फ्रंट पर सोचना पड़ेगा कि आप अगर सही रेवेन्यू मॉडल खोज भी लें, तो उस मॉडल के तहत आप लोगो को बतायेंगे क्या. पुराने समय वाला निष्पक्ष और चीजों से दूरी बनाकर रखने वाला मीडिया अब नहीं चलेगा. मुझे लगता है कि मॉडल एक ही है. आपका जो सब्सक्राइबर है और पाठक है, अगर वह जागरूक होता है तो सारी चीज़ों में भागीदारी करता है, जिससे सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं बचती हैं. उसी तरह से जिस दिन से वो मीडिया को रेवेन्यू देने के लिए भागीदार करेगा और उस पर निगरानी रखने में भी भागीदार होगा, तो मुझे लगता है उस समय मज़बूत मीडिया हमें देखने को मिलेगा. इसके साथ-साथ लोकसभा चुनाव के नतीजों पर विस्तार से बातचीत हुई. पैनल की राय जानने-सुनने के लिए पूरी चर्चा सुनें. See acast.com/privacy for privacy and opt-out information.

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