Featuring Shreyasi Rath || A poetry on School || Dastaan Ae Kalam
About Dastaan Ae Kalam : दास्तान ए कलम is a grand contest in collaboration with अंदर की आवाज़, Mirror Of Emotions and दिल की आवाज़ . It was a 3 round contest which was popular among many writers and non writers. 100+ people registered for the sameFeaturing Shreyasi Rath ! More about Shreyasi : This is Shreyasi Rath, an imperfect writer of 14 years old. She hails from Sambalpur, Odisha. Currently, a pupil of class 10th. She is a crazy lover of her pen and overthinking. She made her bond with pen when she was 9 years old. She have 50+ rewards related literature and contributed in 25+ anthologies. She is a voluble extrovert and a open-hearted girl with a complicated heart.A writeup on School :सिर पर पापा के लगाए तेल से सादगी में सजा मेरा वह 'मशरुम कट' वाला बाल। आँखों में उमड़ते हुए हजार सवाल। कान में गूंजती ढेर सारी किलकारियाँ, किसीके रोने की, किसीके मुस्कुराने की, तो किसीका बवाल। मेरा एक हाथ माँ के हाथ था। गर्मी के मौसम में मुझे यह लोग मौजे पहनाकर न जाने कहाँ लेकर गए थे। हाँ! पैर में काले जूते भी थे। बिलकुल 'Shinchan' वाली एहसास थी। क्योंकि पीछे उसके जैसे एक बैग और गले पे पानी बोतल भी लटका दिया था घर वालों ने। और एक अजीब-सा पोशाक पहना दिया था मुझे। मैं बस सिर झुकाकर खुदको ही घूरे जा रही थी। थोड़ा सा सिर उठाया तो सामने कुछ लिखा था। माँ ने घर पर उस दिन तक जो भी सिखाया था, उसका दिमाग लगाकर बड़ी मुश्किल से मैंने पढ़ा, "DAV Public School"!सब बच्चे रो रहे थे। मैं नहीं रोई। क्योंकि मुझे 'स्कूल' शब्द पढ़ते ही बदमाशी जो सूझने लगा था। 'Shinchan' जो देखती थी मैं! रो तो 'Doraemon' देखने वाले बच्चे थे। फिर कुछ दिन बीता टीचर्स के हँसाती खिलाती पढ़ाई और हमारी शरारतों ने हमे स्कूल आने को उतावला बना दिया। माना सुबह जल्दी उठना पड़ता है, पर एक दिन स्कूल न जाएँ तो लगता है, "अरे यार! यह कौन सी सदी में जी रहे हैं हम?" और यह "अरे यार" कब "अबे यार" में बदल गया पता ही न चला। वह स्कूल का कॉरिडोर, हाँ हाँ माना वहाँ लोग चलते हैं पर वह हमारे लिए जन्नत से कम नहीं है। 'कॉपी-बुक से क्रिकेट' , 'रिंगा-रिंगा रोजेस' , 'स्टोन पेपर सिसर' , 'भागा-दौड़ी' सब कुछ वहीं है। हर session के शुरू होने के पहले दिन 'first bench' हड़पने का plan न जाने कब 'last bench पे सिर्फ़ हमारा हक़' है पर आकर रुक गया। मैं अपना tiffin कभी पूरा नहीं कर पाती हूँ। पहले-पहले जब ज़्यादा छोटी थी तब कुत्तों को दे देती थी। पर जब एक दिन मेरी दीदी ने देख कर घर पर बता दिया तो मैंने कहा था, "उनको भी भूख लग रही होगी न वरना वह मेरे पास क्यों आते!" आज कल और कुत्तों को नहीं देती (डर जो लगता है) पर मेरे दोस्त खा जाते हैं। फ़र्क बस इतना है कि उन कुत्तों को मैं खुद देती थी और यह कुत्ते खुद ही झपट लेते हैं!अच्छा.. रुको रुको, कहीं आप गलत तो नहीं सोच रहे हैं?! हाँ.. माना.... मैं बदमाश हूँ पर मत भूलो मेरे नौटंकी से बड़े बड़े लोग बेबस हो गए हैं। जब parents-teachers meet में माँ मेरी शिकायत पूछती है, तब टीचर्स बोलते हैं "हीरा है, इसका क्या बोले हम!" और उस पर से पीछे से मेरे दोस्तों का मेरे कंधे पर कोहनी टिकाकर बोलना, "उफ़्फ़! जो हीरा है.. अम्बानी और बिल गेट्स फैल हो जाएँ।" जब छोटे थे तब किसीके जनमदिन पर बस चॉकलेट का इंतज़ार था। आज तो अपना हाथ-पैर उसके गाल, पीठ, पैर पर साफ करने का भी इंतेज़ार रहता है। Last period में पानी भरने जाते हैं ताकि एक दूसरे को नेहलाकर घर भेजें। जब क्लास में बैठने के लिए row-rotation होता तब First bench पर बैठकर भी हम क्लास के बीच 'Truth and Dare' खेलते हैं। और यकीन मानिए आज तक पकड़े नहीं गए। अरे! कैसे पकड़े जाते? जब हम एक कॉपी वह भी उधार वाली, उससे पूरी टोली मार देती है फिर यह तो..... पढ़ाई के साथ-साथ "Stupid Idiot" से आगे कोई गाली होती भी है यह हमने यहीं इसी स्कूल नामक मंदिर में हम जैसे कुछ नमूनों से सीखा है।हम भरके बेज्जती कर देंगे अपने स्कूल की, पर कोई दूसरा कर दे? कसम से वहीं औकात निकाल देंगे उसकी। इसी स्कूल में मैंने जाना कि दोस्त भी धोखा देते हैं। पर उसके बाद इसी स्कूल में पता चला कि असल में दोस्त किसे कहते हैं! यह स्कूल ने मुझे बहुत कुछ दिया है, बहुत कुछ सीखाया है। जो मैं कभी भुला नहीं सकती। न वह बोरियत से भरी "School Morning Assembly" न ही वह "अजीब सा पोशाक"! मैं यह स्कूल से कभी अलग नहीं हो सकती क्योंकि यह एक बेसुमार बेइंतेहा एहसास है। मरते दम तक कोई पूछे कि "तुम्हारा पसंदीदा गाना क्या है?" तो बिना सकुचे बोलूँगी "Goooooooooddddd Morrr